Thursday, March 24, 2016

... तो भगत सिंह और उनके साथी ये नारे क्यों लगाते थे?

कोई नारा, कोई शख्स या संगठन यूं ही नहीं लगाता. नारों का मुकम्मल दर्शन होता है. वे दर्शन, महज़ चंद शब्दों के ज़रिए विचारों की शक्ल में ज़ाहिर होते हैं. ये मौजूदा हालात पर टिप्पाणी करते हैं. अक्सर ये आने वाले दिनों का ख़ाका भी ज़ाहिर करते हैं. इसलिए कुछ लोग या संगठन कुछ नारों पर ज़ोर देते हैं और कुछ, कुछ नारों से दूर रहते हैं. इसलिए नारों के पीछे छिपे विचारों को जानना, उनके इतिहास को समझना ज़रूरी होता है.
आज 23 मार्च है. 1931 में आज ही के दिन सुखदेव, राजगुरु और भगत सिंह को फांसी दी गई थी. ऐसे वक़्त में जब नारों के ज़रिए खेमेबंदी हो रही हो, यह देखना दिलचस्प होगा कि आज़ादी के आंदोलन की सबसे मज़बूत क्रांतिकारी धारा ने अपने लिए क्या नारे चुने थे.
इतिहासकार बताते हैं कि हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) की ओर से जब भगत सिंह और बटुकेश्वदर दत्त ने असेम्बली में बम फेंका तो उन्होंने तीन नारे लगाए. ये नारे थे- ‘इंक़लाब ज़िन्दाबाद’, ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ और ‘दुनिया के मज़दूरों एक हों’...
भगत सिंह और उनके साथियों का एक और संगठन था, नौजवान भारत सभा... इरफ़ान हबीब बताते हैं कि वह (नौजवान भारत सभा), साम्प्रदायिक सौहार्द्र को राजनीतिक कार्यक्रम का एक अहम हिस्सा मानती थी. लेकिन कांग्रेस के विपरीत वह न तो अलग-अलग धार्मिक मतों के तुष्टिकरण में यक़ीन करती थी और न ही सेक्यूलरिज़्म के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दर्शाने के लिए ‘अल्लाहो अकबर’, ‘सत श्री अकाल’ और ‘वंदे मातरम’ के नारे लगाती थी. इसके विपरीत वह ‘इंक़लाब ज़िन्दाबाद’ और ‘हिन्दुस्तान ज़िन्दाबाद’ के नारे लगाती थी.

Monday, March 23, 2009

क्‍या हम भगत सिंह के विचार को जिंदा रखने को राजी हैं


इसे भी साथ में पढ़ें-

भगत सिंह- राजगुरु- सुखदेव की याद

आज भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की शहादत का दिन है। मुझे नहीं मालूम कि हम में से कितने लोगों को यह दिन याद रहता है। लेकिन इनकी शहादत को याद रखना मेरे लिए काफी अहम है। मैं भूलना भी चाहूँ तो शायद मुमकिन नहीं। इसीलिए महीनों से ब्‍लॉग की दुनिया से दूर रहने के बावजूद मैं यह पोस्‍ट करने पर मजबूर हो रहा हूँ।

तेइस साल। यही उम्र थी भगत सिंह की जब उन्‍हें फाँसी दी गई। मैं तो तेइस साल में कुछ नहीं कर पाया। भगत सिंह के बारे में आप जितना ही पढ़ते जाएँगे, आप अपने होने पर सवाल खड़े करने लगेंगे। आपको लगेगा कि क्‍या वाकई में हम एक ऐसे नौजवान के वारिस हैं, जिसने इतनी कच्‍ची उम्र में इतने पक्‍के खयालात बनाए। देश-दुनिया के बारे में इतना पढ़ गया, जितना हममें से कई दश्‍कों में नहीं पढ़ पाते। इतना कह और सोच गया कि लाख छिपाने पर उसके विचार छिप न सके।  

यह कहना की भगत सिंह महान थे, जितना आसान है, उतना ही मुश्किल है उस राह पर चलना जिस पर भगत सिंह ने हँसते-हँसते जान न्‍यौछावर कर दिया। यह काम कोई सिरफिरा या पागल नहीं कर सकता था। यह काम वही कर सकता था, जिसे अपने मकसद के बारे में जरा भी गलतफहमी नहीं थी।

जब मैं पढ़ाई कर रहा था तो अक्‍सर ऐसे टीचर और नेताओं से मुलाकात होती, जो हमें तो भगत सिंह के विचारों से प्रेरित होने और उनके रास्‍ते पर चलने की सलाह देते। लेकिन अपने बेटे- बेटियों से हमेशा यह राह छिपा कर रखा करते। अगर किसी का बेटा या बेटी भटकता हुआ उधर गुजरने की कोशिश करता तो उसे यह समझाकर वापस लौटा लाते कि अभी हालात ऐसे नहीं हैं। (भौतिक परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं हुई हैं।) यानी भगत सिंह बहुत महान। बहुत अच्‍छे। लेकिन भगत सिंह मेरे घर में नहीं बल्कि पड़ोसी के घर पैदा लें।  यही आज के मध्‍यवर्ग का मानस भी है। आज इसी मानस का फैलाव दूर-दूर तक है। इसलिए भगत‍ सिंह की वीरता के गान हम भले ही आज जितना गा लें। उनके विचार से दो चार होने की हिम्‍मत नहीं जुटा पाते क्‍योंकि विचार बड़े बदलाव की ओर ले जाते हैं। बदलाव की राह कभी आसान नहीं होती। 

 

Saturday, July 12, 2008

भगत सिंह पर डॉक्‍यूमेंट्री फिल्‍म (A documentary film on Bhagat Singh)

एक ख़ुशख़बरी है। भगत सिंह पर एक डॉक्‍यूमेंट्री फिल्‍म बनी है। इसका नाम इन्‍क़लाब है। नेहरू स्‍मारक संग्रहालय और पुस्‍तकालय के सौजन्‍य से बनी फिल्‍म को बनाया है गौहर रज़ा ने। यह फिल्‍म इतवार, शाम पाँच बजे दिल्‍ली में रिलीज होगी। भगत सिंह की जन्‍मशताब्‍दी के मौके पर बनी इस फिल्‍म का बेसब्री से इंतज़ार है। (इस मौके पर छपे निमंत्रण पत्र को पढ़ने के लिए चित्र पर डबल क्लिक करें।)

Sunday, March 23, 2008

तब लोगों को मेरी याद आएगी

आज भगत सिंह-सुखदेव-राजगुरु ( Bhagat Singh - Sukhdev- Rajguru) की शहादत का दिन है। हालाँकि किसी को पुण्यतिथि या जन्‍मदिन पर याद करना, औपचारिकता ही लगती है। इसके बावजूद यह औपचारिकता कई बार जरूरी है। खासतौर पर उस वक्‍त जब हम देशभक्ति की बातें तो बड़ी-बड़ी करें पर देश में रहने वाले लोगों के बारे में ज़रा भी न सोचें। इसी बात को याद दिलाने के लिए भगत सिंह (Bhagat Singh) की रचनाओं में से चुनी गई कुछ लाइनें यहाँ पेश है।

भगत सिंह (Bhagat Singh) के चंद विचार
Inquilab Jindabaad

''चारों ओर काफी समझदार लोग नज़र आते हैं लेकिन हरेक को अपनी जिंदगी खुशहाली से बिताने की फिक्र है। तब हम अपने हालात, देश के हालात सुधरने की क्‍या उम्‍मीद कर रहे हैं।''

(1928)

'' वे लोग जो महल बनाते हैं और झोंपडि़यों में रहते हैं, वे लोग जो सुंदर-सुंदर आरामदायक चीज़ें बनाते हैं, खुद पुरानी और गंदी चटाइयों पर सोते हैं। ऐसी स्थिति में क्‍या करना चाहिए? ऐसी स्थितियाँ यदि भूतकाल में रही हैं तो भविष्‍य में क्‍यों नहीं बदलाव आना चाहिए? अगर हम चाहते हैं कि देश की जनता की हालत आज से अच्‍छी हो, तो यह स्थितियाँ बदलनी होंगी। हमें परिवर्तनकारी होना होगा।''

(अगस्‍त 1928)

'' हमारा देश बहुत अध्‍यात्मिक है लेकिन हम मनुष्‍य को मनुष्‍य का दर्जा देते हुए भी हिचकते हैं।''

'' उठो, अछूत कहलाने वाले असली जन सेवकों तथा भाइयों उठो... तुम ही तो देश का मुख्‍य आधार हो, वास्‍तविक शक्ति हो... सोए हुए शेरों। उठो, और बग़ावत खड़ी कर दो।''

(अछूत समस्‍या 1928)

'' संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्‍ट्र के हों, हक एक ही हैं।''

'' धर्म व्‍यक्ति का निजी मामला है, इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं, न ही इसे राजनीति में घुसना चाहिए।''

(1927)

''जब गतिरोध की स्थिति लोगों को अपने शिकंजे में जकड़ लेती है, तो किसी भी प्रकार की तब्‍दीली से लोग हिचकिचाते हैं। इस जड़ता और घोर निष्क्रियता को तोड़ने के लिए एक क्रांतिकारी स्पिरिट पैदा करने की जरूरत होती है, अन्‍यथा पतन और बर्बादी का वातावरण छा जाता है।''

''अंग्रेजों की जड़ें हिल गई हैं और 15 साल बाद में वे यहाँ से चले जाएँगे। बाद में काफी अफरा-तफरी होगी तब लोगों को मेरी याद आएगी।''

(12 मार्च 1931)

''मैं पुरजोर कहता हूँ कि मैं आशाओं और आकांक्षाओं से भरपूर जीवन की समस्‍त रंग‍ीनियों से ओतप्रोत हूँ। लेकिन वक्‍त आने पर मैं सबकुछ कुरबान कर दूँगा। सही अर्थों में यही बलिदान है।''

(सुखदेव के नाम पत्र, 13 अप्रैल 1929)

जहाँ तक प्‍यार के नैतिक स्‍तर का सम्‍बंध है... '' मैं कह सकता हूँ कि नौजवान युवक-युवतियाँ आपस में प्‍यार कर सकते हैं और वे अपने प्‍यार के सहारे अपने आवेगों से ऊपर उठ सकते हैं।''

(सुखदेव को पत्र , 1928)

(इंकलाब-जिंदाबाद पोस्‍टर परिकल्‍पना व डिजायन- न‍ासिरूद्दीन)

Thursday, October 18, 2007

बीते कल से सबक सीखने का समय

सन् 1857 में जो हिन्‍दुस्‍तान के लिए लड़े, आज उनके वारिसों की हालत कैसी है और जिन्‍होंने अंग्रेजों का साथ दिया, उनके वशंज आज किस हालत है। युवा इतिहासकार अमरेश मिश्र इसका आकलन कर रहे हैं। इस आकलन की पहली किस्त कल हमने पोस्ट की थी। आज इसकी दूसरी और आखिरी किस्‍त अमर उजाला में छिपी है। हम अमर उजाला से साभार इसे यहां दे रहे हैं।

उग्रराष्ट्रवाद और पश्चिम परस्ती का घालमेल खतरनाक

अमरेश मिश्र
अंगरेजों ने मार्च, 1858 में अपनी सारी सैन्य ताकत और सभी सहयोगियों को बटोरकर लखनऊ और अवध के क्रांतिकारियों को कुचलने का अभियान छे़ड दिया। नेपाल और कपूरथला के राजा अपने सैनिकों को लेकर ब्रिटिश सेना के साथ थे। 1859 के बाद कपूरथला राजा और दूसरे अंगरेज समर्थक गैर-खालसा सिख सहयोगियों को अवध और गोरखपुर में काफी जमीनें दे दी गईं। देवी सिंह जैसे अंगरेज विरोधी बिसेन तालुकदारों की जमीनें 'विश्वासभाजन' बलरामपुर राजा को दे गई। प्रमुख बैस तालुकदार बेनी माधो की जमीनें भी अंगरेजों के कब्जे में चली गईं। मुरादाबाद के नवाब मज्जू खान और उनके सहयोगी ठाकुर कुंदन सिंह की संपत्ति रामपुर के नवाब खासमखासों को दे दी गईं। मैनपुरी और एटा में भदौरिया, गौतम और चौहान राजपूतों को भी अपनी संपत्तियों से हाथ धोना पड़ा। उनकी जमीनें अंगरेज समर्थक बनियों और खत्रियों को दे दी गईं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में अंगरेज विरोधी भूमिहारों की संपत्ति बनारस के राजा के हवाले कर दी गईं और वह देश के सबसे बड़े अमीरों में शुमार किए जाने लगे।

आज भी उत्तर प्रदेश का परिदृश्य कुछ खास नहीं बदला है। बनारस के राजा समेत जिन घरानों ने अंगरेजों का साथ दिया था, वे धनाढ्य हैं। शहरों में अधिकांश संपत्तियों पर खत्रियों व बनियों का ही नियंत्रण है। लेकिन सबसे ज्यादा खराब हालत उत्तर प्रदेश-बिहार-राजस्थान-मध्य प्रदेश (हिंदी-उर्दू क्षेत्र) के उलेमाओं और सनातन धर्मी साधुओं की है। 1857 में हिंदी-उर्दू क्षेत्र के उलेमाओं ने अंगरेजों के खिलाफ कम से कम सात जिहाद की अगुआई की।

ज्यादातर अंगरेज विरोधी उलेमा 18वीं सदी के शाह वलीउल्ला के नए इसलामी दर्शन से प्रभावित थे। उलेमाओं के खिलाफ अंगरेजों की प्रतिहिंसा अभूतपूर्व थी। लेकिन अंगरेजों के इन अमानवीय कृत्यों ने ब्रिटिश-विरोधी देवबंद स्कूल की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया। 20वीं सदी में वही देवबंद स्कूल आजादी के दीवानों को पैदा करने वाली फैक्टरी के रूप में विकसित हुआ। 20वीं सदी के मशहूर उलेमा मौलाना हुसैन अहमद मदनी ने मोहम्मद अली जिन्ना और मुसलिम लीग के 'द्विराष्ट्र सिद्धांत' का विरोध किया था। मौलाना मदनी का साझा राष्ट्रवाद का सिद्धांत गांधी और पंडित नेहरू के विचारों के काफी करीब और कई मायने में उनसे ज्यादा असरदार था। इसके बावजूद 1857 के उलेमाओं, देवबंद और मौलाना मदनी के क्रांतिकारी योगदान को स्वातंत्र्योत्तर भारत के इतिहास में याद भी नहीं किया जाता है। यूपी-बिहार के उलेमा गुरबत में जी रहे हैं और उनके संगठन जमीयत उलेमा-ए-हिंद को कभी वह स्थान नहीं मिला, जिसका वह हकदार है। उन्हें आज भी वहाबी कहा जाता है, जबकि वे वलीउल्ला के अनुयायी हैं।

इसी तरह नगा साधुओं और गोसाइंयों के सनातन धर्म अखाड़ों ने अनूप गिरि गोसाईं के नेतृत्व में अंगरेजों से खूब लोहा लिया। इन अखाड़ों ने अवध, राजस्थान, उज्जैन, माहेश्वर, नासिक और गुजरात में धर्मयुद्ध का फतवा जारी किया था। 1857 से जु़डी अंगरेजों की प्रतिहिंसा में 30 लाख से ज्यादा सनातन धर्मी साधु मारे गए थे। इसके बावजूद स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका का जिक्र तक नहीं किया जाता है।आज उन अखाड़ों की हालत दयनीय है। इसके ठीक विपरीत, महंत अवैद्यनाथ की अगुआई में गोरखपुर और पूर्वी उत्तर प्रदेश के मठों की समृद्धि देखते बनती है।

आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी 1857 में अंगरेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। शिर्डी के साइंर्बाबा भी उस दौरान सक्रिय थे और वह खुद लक्ष्मीबाई को आशीर्वाद देने पहुंचे थे। इसके बावजूद आज स्वामी अग्निवेश सरीखे आर्य समाजी की पहचान व्यवस्था विरोधी की बन गई है। दूसरी तरफ, शिर्डी के साइंर्बाबा की सूफी परंपरा को जिन 'नए' साइंर्बाबा ने हथिया लिया है, उनका 1857 से दूर-दूर तक का रिश्ता नहीं है।

वर्तमान मध्य प्रदेश, विदर्भ और छत्तीसगढ़ क्षेत्र में जबलपुर-दमोह के लोध, बुंदेला व बघेल राजपूतों और गोंडों ने भी 1857 में अंगरेजों का विरोध किया था। अंगरेज खासकर महाकोशल-नर्मदा के लोधों से बहुत डरते थे। दूसरी तरफ, ग्वालियर के सिंधिया, इंदौर के होलकर और नागपुर के भोंसले घरानों ने अंगरेजों से हाथ मिला लिया था। आज इन्हीं घरानों की तूती बोल रही है, जबकि राजपूत, लोध और गोंड हाशिये पर जीने को अभिशप्त हैं। पश्चिमी भारत में अंगरेजों के खिलाफ हथियार उठाने वालों में महार, मराठा, कुनबी, चितपावन और देशहता ब्राह्मण, रामोशी, कोली और भील प्रमुख थे। आरक्षण से हुई प्रगति के बावजूद महार 17वीं-18वीं सदी के अपने उत्कर्ष काल से कोसों दूर हैं। अंगरेजों के जमाने से ही रामोशियों की पहचान अपराधियों के रूप में की जा रही है। मराठी कुनबियों की हालत भी अच्छी नहीं है। गुजरात में मुसलमानों, भीलों, कोलियों और पाटीदारों ने अंगरेजी शासन को चुनौती देने का साहस किया था। सौराष्ट्र में वघेरों ने भी यह भूमिका निभाई थी। इसलिए आश्चर्य नहीं है कि स्वातंत्र्योत्तर गुजरात में कोली, भील, वघेर, दलित और मुसलमान आज काफी पिछड़े हुए हैं।

दक्षिण भारत में 1857 में रेड्डी अभिजात वर्ग के कम्मा और कापू खेतिहर समुदाय, आंध्र के गिरिजन जनजाति, कर्नाटक के लिंगायत, तमिलनाडु के थेवर और वन्नियार और केरल के मोपला अंगरेजों के खिलाफ लड़े। पश्चिम बंगाल, असम और उत्तर पूर्व के दूसरे क्षेत्रों में अंगरेजों के खिलाफ लड़ने वाले आज अच्छी हालत में नहीं हैं। 1947 के बाद का इतिहास भी देखा जाए, तो 1857 में अंगरेजों के खिलाफ हथियार उठाने वाले परिवारों और समुदायों में एकाध अपवाद को छोड़कर किसी को समृद्धि और ख्याति नसीब नहीं हुई। दरअसल, आज भी उन परिवारों और समुदायों को 'उपद्रवी' के रूप में ही चिन्हित किया जाता है।

अगर देश के 100 या 500 सबसे ज्यादा अमीर पुरुषों और महिलाओं की फेहरिस्त बनाई जाए, तो उसमें 1857 में ब्रिटिश-विरोधी रहे परिवारों या समुदायों में से एक भी नाम शामिल नहीं होगा। यह एक बड़ी कमी है, जिसने स्वातंत्र्योत्तर भारतीय प्रजातांत्रिक पूंजीवादी राज्य और उसकी व्यवस्था की विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचाया है। नतीजतन, राज्य और उसकी व्यवस्था न सिर्फ रुढ़िवादी बल्कि 'सॉफ्ट' और गैर-राष्ट्रवादी भी नजर आ रही है। अति-उग्रराष्ट्रवाद और पश्चिम परस्त मानसिकता एक-दूसरे की पूरक हैं। जितनी जल्दी इस समस्या को दूर किया जाए, इस देश के लिए उतना ही अच्छा होगा। जो लोग इतिहास से नहीं सीखते, वे उसे दोहराते रहने के लिए अभिशप्त होते हैं। इतिहास से यह सबक मिलता है कि जो सामाजिक समूह, समुदाय और परिवार राष्ट्रीय राजनीति में अपने योगदान के बारे में ठगा हुआ महसूस करते हैं, आखिरकार प्रतिशोध के लिए हमला करते हैं। (समाप्त)

Wednesday, October 17, 2007

और गुरबत में हैं क्रांतिकारियों के वंशज

सन् 1857 भारतीय इतिहास में एक महत्‍वपूर्ण मोड़ है। इसने न सिर्फ भारतीय राजनीति और शासन की दिशा बदली बल्कि आने वाले समय में सामाजिक सम्‍बंधों और समुदायों के विकास पर जबरदस्‍त असर डाला। यह असर आज भी महसूस किया जा सकता है। अमर उजाला के 17 अक्‍तूबर के अंक में अमरेश मिश्र का इसी मुद्दे पर केन्द्रित एक लेख छपा है। 1857 पर हिन्‍दी और अंग्रेजी में सबसे सक्रिय लेखन अमरेश मिश्र कर रहे हैं। उन्‍होंने कई चीज़ों को गर्दो गुबार के ढेर से सामने लाने की कोशिश की है। उनकी कई स्‍थापनाओं पर विवाद भी है। इसके बावजूद जो तथ्‍य वे सामने लेकर आ रहे हैं, वे बहुत कुछ सोचने पर मज़बूर कर देते हैं। अमर उजाला से साभार यह लेख शहीद-ए-आज़म के पाठकों के लिए।

1857 में अंगरेजों का साथ देने वालों पर खूब बरसी समृद्धि
अमरेश मिश्र
बहादुरशाह जफर के एक वंशज द्वारा लाल किला की संपत्ति पर दावा ठोकने संबंधी खबर ने एक महत्वपूर्ण सवाल खड़ा किया है कि 1857 में अंगरेजों के खिलाफ जिन परिवारों और समुदायों ने हथियार उठाए थे, वे आज किस हाल में हैं?

1857 को भारत की आजादी की पहली जंग कहा जाता है। अगर ऐसा है, तो क्या कारण है कि जिन परिवारों ने अंगरेजों का समर्थन किया, वे आजादी के बाद समृद्ध होते चले गए, जबकि अंगरेजों से लोहा लेने वाले टीपू सुल्तान, बहादुरशाह जफर और वाजिद अली शाह के वंशज गुरबत में जी रहे हैं?
कई समुदायों के साथ भी यही हुआ। गुर्जरों की ही मिसाल लीजिए। राजस्थान के टोंक से लेकर हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इलाके में गुर्जर क्रांतिकारी 10 मई, 1857 से 1859 के अंत तक सक्रिय रहे। ब्रिटिश अफसरों ने गुर्जर 'उपद्रव' की कटु आलोचना की थी। आज गुर्जरों में इतनी ज्यादा बेरोजगारी है कि घुमंतुओं और व्यापारियों का यह गर्वीला समुदाय अनुसूचित जनजाति की हैसियत पाने के लिए संघर्ष करने को मजबूर है। मुसलमान मेवातियों की कहानी इससे भी ज्यादा दु:खद है। 1857 में इलाहाबाद से हरियाणा व पूर्वी राजस्थान तक मेवाती या मेव अंगरेजों से डटकर लड़े। दरअसल, इलाहाबाद के मेवों ने दिल्ली के किले को बचाने के लिए जान की बाजी लगा दी थी
रूहेलखंड में कई राजस्थानी मेव अंगरेज सैनिकों के हाथों मारे गए थे। मुगल-मराठा शासनकाल के दौरान मेवों की पहचान समृद्ध किसानों और चर्म व्यापारियों के समुदाय के रूप में थी। लेकिन आज उन्हें पिछड़ा कहा जाता है। उन्हें आरक्षण का भी लाभ नहीं मिला।

1857 में खेतिहर जाटों में हरियाणा और दिल्ली-पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सलकलैन, मावी, दहिया और हुडा गोत्रों ने दूसरे जाट गोत्रों को साथ लेकर अंगरेजों के छक्के छु़ड़ाए थे। ठीक इसके विपरीत अहलावत और घटवाल गोत्रों ने अंगरेजों का साथ दिया था। वर्तमान में कुछ अपवादों को छोड़कर सलकलैन, मावी, दहिया और हुडा गरीब या मध्यवर्ती किसान हैं, जबकि अहलावत और घटवाल दिल्ली-हरियाणा के सबसे समृद्ध जाट गोत्रों में शुमार हैं। इसी तरह रेवाड़ी और हरियाणा के अंगरेज-विरोधी राव-अहीरों में भी कुछ लोगों को छोड़कर बाकी मध्यवर्ती या गरीब किसान हैं। मुसलमान रांगड़ और भट्टी जैसे हरियाणा के दूसरे ब्रिटिश-विरोधी समुदायों पर अंगरेजों के जातिसंहार का ऐसा कहर बरपा था कि 1857 के बाद उनका सफाया ही हो गया था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दलितों में वाल्मीकियों और जाटवों ने 1857 में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। आज उनकी स्थिति खराब है।

19वीं सदी में दिल्ली शहर के अंदर पूरबिया-पश्चिमिया कामगारों और 1803 से पूर्व के मुगल-मराठा काल के मुसलमान और खत्री अभिजात वर्ग ने अंगरेजों का विरोध किया। जबकि 1803 के बाद के खत्री और पंजाबी हिंदू अभिजात वर्ग ने उनका समर्थन किया था। 1857 के दौरान दिल्ली के बाहर के पूरबिया किसान सिपाहियों ने 1803 के बाद के खत्री-हिंदू पंजाबी अभिजात वर्ग को बेदखल करने के लिए दिल्ली के पूरबिया-पश्चिमिया कामगारों और हरियाणा के जाट-गुर्जर-पश्चिमिया किसानों को अपने साथ लिया था।

हैरानी की बात नहीं है कि 1803 के बाद के दिल्ली के अभिजात वर्ग ने 1857 में अंगरेजों का साथ दिया था। 1857 के मई से सितंबर तक दिल्ली उपनिवेश-विरोधी लड़ाई के साथ-साथ एक भारी आंतरिक वर्गीय और सांस्कृतिक संघर्ष का भी गवाह बनी थी। खत्री-पंजाबी हिंदू अभिजात वर्ग को क्रांतिकारी दहशत का दंश झेलना पड़ा था। 21 सितंबर, 1857 के बाद ब्रिटिश प्रतिहिंसा ने क्रांति-विरोधी आतंक का रूप धारण कर लिया। ब्रिटिश अफसरों ने कूचा चीलन, बल्लीमारान, दरीबा, फरहत बख्श और जामा मसजिद इलाके में मुसलमानों की संपत्तियों और मोहल्लों को तबाह कर दिया। उन मोहल्लों के हजारों मुसलमानों को यमुना के किनारे रस्से से बांधकर गोली से उड़ा दिया गया। उनमें मशहूर विद्वान, लेखक, कवि और मौलवी भी शामिल थे। हिंदू पूरबिया और पश्चिमियों का भी वही हश्र हुआ।

उन मोहल्लों में जो कुछ भी शेष रह गया था, वह 1947 में दिल्ली में हुए सांप्रदायिक दंगे के दौरान लूट लिया गया। हजारों मुसलमान मार डाले गए। पुरानी दिल्ली में शवों के अंबार कई दिन तक सड़ते रहे। हाल में हुए शोध से, जिनमें एलेक्स वॉन तुंजेलमान लिखित 'द इंडियन समर : सीक्रेट हिस्ट्री ऑफ द एंड ऑफ ऐन एंपायर` भी शामिल है, पता चलता है कि यह सिर्फ सांप्रदायिक दंगा नहीं था। दरअसल, यह मुसलमान-विरोधी बगावत थी। दूसरे शब्दों में यह विभाजन के बाद अस्तित्व में आए नए भारतीय राज्य की धर्मनिरपेक्ष बुनियाद के खिलाफ दक्षिणपंथ का विद्रोह था। इस दौरान दंगाइयों ने किसी सैन्य शक्ति की तरह मशीन गन, ग्रेनेड और मोर्टार का योजनाबद्ध तरीके से इस्तेमाल किया। इस बगावत के पीछे आरएसएस का हाथ था। इस काम में आरएसएस को अंगरेजों और खत्री-पंजाबी हिंदू के उसी गठबंधन का साथ मिला, जिसने 1857 में भी अंगरेजों का समर्थन किया था।

आज के उत्तर प्रदेश में हर क्षेत्र में कुछ 'खास' सामाजिक शक्तियां हैं, जिन्होंने अंगरेजों से लोहा लिया था। उन शक्तियों में मध्य दोआब के भदौरिया, चौहान और गौतम राजपूत, ब्रज-अलीगढ़ मथुरा के जाट और अहीर, रूहेलखंड के रोहिल्ला पठान, शेख, सैयद, राजपूत, दलित, अहिर और कुर्मी, कन्नौज, लखनऊ और उत्तरी अवध के कान्यकुब्ज ब्राह्मण, पूर्वी और दक्षिणी अवध के सरयूपारी ब्राह्मण, उत्तरी, पूर्वी और दक्षिणी अवध के बैस, रैकवार, बिसेन, बचगोटी, अंबन और जंवार राजपूत, आजमगढ़ के पुलवार राजपूत, जौनपुर और बनारस के राजकुमार राजपूत, भदोही के मौनस राजपूत, बनारस-गोरखपुर क्षेत्र के जुलाहा मुसलमान, सीतापुर और अवध के पासी, सुल्तानपुर के कोइरी, बाराबंकी के कुर्मी, बुंदेलखंड के बुंदेला राजपूत और दलित, गाजीपुर के भूमिहार, फर्रुखाबाद के नवाब का बंगश पठान परिवार, बेगम हजरत महल की अगुआई में वाजिद अली शाह का परिवार, बंदा नवाब शामिल हैं। मुगल-मराठा काल में ये सभी परिवार या समुदाय काफी धनाढ्य हुआ करते थे। हालांकि उनमें से कुछ तो ब्रिटिश शासन काल के दौरान भी अपनी समृद्धि की रक्षा करने में सफल रहे थे, लेकिन सिद्धांत और राष्ट्र से प्रेम के कारण उन्होंने अंगरेजों का विरोध किया।

इसके ठीक विपरीत अवध के बलरामपुर राजा, रूहेलखंड के रामपुर नवाब, बनारस के राजा और बुंदेलखंड के चिरखारी राजा ने अंगरेजों का साथ दिया था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दोआब और बुंदेलखंड के बनिया व खत्री और मारवाड़ियों ने भी अंगरेजों का समर्थन किया था। (... जारी)

Sunday, October 07, 2007

क्‍या आप दुर्गा भाभी को जानते हैं

दुर्गा भाभी जिनकी आज सौवीं सालगिरह है

durga bhabhi1 जेण्‍डर विभेद सिर्फ परिवारों में ही नहीं होता बल्कि समाज के हर क्षेत्र में इसका बोलबाला है। फिर चाहे वो क्रांतिकारियों को याद करने का ही मामला क्‍यों न हो। आजादी के लिए जान न्‍योछावर करने वाले को ही हम कितना याद करते हैं, यह खुद एक सवाल है। महिला क्रांतिकारियों की तो बात जाने दें। इसके बावजूद पुरुष क्रांतिकारी के बारे में फिर भी कुछ पता होता है, महिला क्रांतिकारियों के बारे में तो तलाशने पर भी मुश्किल से जानकारी मिल पाती है। आज ऐसी ही एक महिला क्रांतिकारी की पैदाइश का दिन है... उनकी पैदाइश की सौवीं सालगिरह।

एक दृश्‍य- पंजाब केसरी लाला लाजपत राय की शहादत के बाद अंग्रेज अफसर सांडर्स की हत्‍या। हत्‍यारों की तलाश में हर जगह जबरदस्‍त मोर्चाबंदी। लाहौर रेलवे स्‍टेशन। 18 दिसम्‍बर 1928। चार लोग। दो मर्द, एक औरत और एक बच्‍चा। इनमें दो लोग पति-पत्नी थे और बच्‍चे के साथ ट्रेन के पहले दर्जे के डिब्बे में बैठे। नौकर तीसरे दर्जे में था। ये और कोई नहीं बल्कि वे क्रांतिकारी थे, जिन्‍होंने पंजाब केसरी की मौत का बदला लिया था। पति के रूप में भगत सिंह थे तो पत्‍नी दुर्गावती देवी थीं और नौकर सुखदेव। दुर्गावती देवी, एक और क्रांतिकारी भगवती चरण वोहरा की जीवन साथी और बाकि क्रांतिकरियों की दुर्गा भाभी। और इस तरह दुर्गा भाभी ने साहसी काम कर दिखाया और भगत सिंह को अपना शौहर बनाकर लाहौर से अंग्रेजों के जबड़े से निकालकर कलकत्‍ता पहुँचा आयीं।

आने वाले दिनों में भगत सिंह ने जो किया, वो उन्‍हें शहीदे आज़म के दर्जे तक ले गया और उनकी जन्‍म शताब्‍दी का भी यह साल है। पर उनके साथ ही यह साल दुर्गाभाभी की भी जन्‍म शताब्‍दी का साल है। भगत सिंह तो याद रहे पर दुर्गा भाभी आज के क्रांतिकारियों को भी याद नहीं रहीं। यहां तक कि इंटरनेट, जिसे जानकारी का खजाना माना जाता है, वहां भी दुर्गा भाभी के बारे में न तो जानकारी मिलती है, फोटो की बात तो दूर है। भगत सिंह 28 सितम्‍बर 1907 में पैदा हुए थे और दुर्गा भाभी उसी साल सात अक्‍टूबर को इलाहाबाद में। 11 साल की उम्र में उनकी शादी लाहौर के भगवती चरण वोहरा से हुई। भगवती चरण वोहरा पढ़ाई के दौरान क्रांतिकारी आंदोलन के हिस्‍सा बन गये और उनके साथ ही दुर्गावती देवी भी कंधे से कंधा मिलाकर चलने लगीं। ये दोनों भगत सिंह के काफी करीब थे। क्रांतिकारी आंदोलन के जो भी खतरे थे, दुर्गा भाभी ने वो सारे खतरे उठाये और एक मजबूत क्रांतिकारी बन कर उभरीं। भगत सिंह और उनके साथियों को जब सजा हो गयी तो उन्‍हें छुड़ाने की योजना बनी। लाहौर में बनी इस योजना को अमलीजामा पहनाने भी इनका योगदान था। इसी योजना के तहत बम बन रहे थे। उन बम का परीक्षण रावी नदी के तट पर होना तय हुआ। परीक्षण के दौरान ही बम फट गया और भगवती चरण वोहरा की मौत हो गयी... और दुर्गा भाभी को आखिरी वक्‍त में उनका चेहरा भी देखने को नहीं मिला। इस व्‍यक्तिगत और भयानक हादसे के बावजूद वो डिगी नहीं... टूटी नहीं। आंदोलन का हिस्‍सा बनी रहीं।

इसी दौरान क्रांतिकारियों ने बम्‍बई के अत्‍याचारी गर्वनर हेली को मारने की योजना बनाई गयी। इस योजना को अंजाम देने वालों में दुर्गा भाभी भी थीं। उन्‍होंने गोलियां भी चलाईं। लेकिन यह वक्‍त क्रांतिकारी आंदोलन के उरुज और अवसान दोनों का था। एक एक करके क्रांतिकारी आंदोलन के बड़े कारकुन शहीद हो गये... भगवती चरण वोहरा, शालिग्राम शुक्‍ल, चन्‍द्रशेखर आजाद और फिर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु। इस हालत में भी दुर्गा भाभी आंदोलन को आगे बढ़ाने की कोशिश्‍ा करती रही। वे पुलिस की पकड़ में भी आयीं। जेल भी गयी और नजरबंद भी रहीं। सन् 1936 में वे गाजियाबाद आ गयीं। फिर लखनऊ। 20 जुलाई 1940 को उन्‍होंने लखनऊ में पहला मांटेसरी स्‍कूल स्‍थापित किया। उन्‍होंने अपना मकान शहीदों के बारे में शोध के लिए दान दे दिया। आखिरी वक्‍त में वे अपने पुत्र शचीन्‍द्र वोहरा के पास गाजियाबाद चली गयी थीं। इस महान क्रांतिकारी ने 14 अक्‍तूबर 1999 को 92 साल की उम्र में हमेशा के लिए इस जहाँ से विदा ले लिया।

जिसने अपने सुख दुख की परवाह किये बगैर, बिना कुछ चाहने की ख्‍वाहिश रखे अपना सब कुछ दॉंव पर लगा दिया हो, उस महान महिला क्रांतिकारी को याद रखना हमारी जिम्‍मेदारी है। क्‍या हम उस जिम्‍मेदारी को निभा रहे हैं।

Friday, September 28, 2007

घोड़ी भगत सिंह शहीद

आज भगत सिंह की सा‍लगिरह है। जिंदा रहते तो आज, भगत सिंह सौ साल के होते। लेकिन शहीद भगत सिंह विचार के रूप में एक मज़बूत विरासत हमारे लिये छोड़ गये। कल हमने इरफान हबीब का विचार पढ़ा था... आज लोकमानस में रचे बसे भगत सिंह के बारे में पढि़ये-

चमन लाल

... डॉ गुरुदेव सिंह सिद्धू के सम्पादन में 'सिंघ गरजना' शीर्षक से भगत सिंह से सम्बंधित पंजाबी कविताओं का एक संकलन पंजाबी विश्वविद्यालय ने 1992 में प्रकाशित किया था और अभी 2006 में इन्हीं के सम्पादन में पंजाबी में 'घोडि़या शहीद भगत सिंह' संकलन छपा है। ...
'घोड़ी' पंजाबी भाषा का लोकगीत रूप है, जिसमें दूल्हा बारात जाने और दुल्‍हन लाने के लिए चलते समय घोड़ी पर चढ़ता है और उसके पीछे 'सरवाला', जो अक्‍सर उसका छोटा भाई होता है, वह बैठता है। भगत सिंह के संदर्भ में 'घोड़ी' लोकगीत रचने वाले लोक कवियों ने 'मौत' को भगत सिंह की दुल्हन के रूप में चित्रित करते हुए भगत सिंह को चाव से अपनी दुल्हन को प्राप्त करने का बिम्ब सृजित किया है। 'मौत' यानी 'फांसी' पर चढ़ते जाते वक्‍त भगत सिंह का दूल्हे की तरह घोड़ी पर चढ़कर जाना लोकमानस का ऐसा बिम्ब है, जिसने भगत सिंह को सदियों तक के लिए लोकमानस में ऐसे प्रतिष्ठित कर दिया है कि उसका हाल में उभरकर आया वैचारिक पक्ष उसे और सुदृढ़ तो कर सकता है, लेकिन उस बिम्ब को बदल नहीं बदल सकता।

पंजाबी (गुरमुखी व फ़ारसी- दोनों लिपियों में) 1931 के आसपास मिलते-जुलते शब्दों वाली भी कई घोडि़यां छपीं। शायर मेला राम 'तायर' व महिन्दर सिंह सेठी अमृतसरी की 'घोडि़यों' के कई हिस्से मिलते-जुलते हैं। शायर तायर ने 23 मार्च 1932 को लाहौर में भगत सिंह की शहादत के एक बरस बाद यहां प्रस्तुत 'घोड़ी' को तांगे पर चढ़कर बाज़ार में गाया। इस घोड़ी सम्बंधी, हिन्दी-पंजाबी लेखक गौतम सचदेव ने 'हुण' (जनवरी-अप्रैल 2007) अंक में दिलचस्प किस्सा बयान किया है। गौतम सचदेव के अनुसार उसके ससुर राम लुभाया चानणा स्वतंत्रता सेनानी थे और 1998 में संयोग से गौतम की भेंट इस घोड़ी के शायर तायर से हो गयी, जो उस समय सौ बरस के हो चुके थे, लेकिन उस उम्र में भी उन्हें घोड़ी पूरी तरह याद थी और गौतम ने टेपरिकार्डर में तायर की यादें और घोड़ी उन्हीं के स्वर में रिकार्ड की। इसी घोड़ी को 'लीजेंड ऑफ भगत सिंह' फि़ल्म में भी गीत के रूप में इस्तेमाल किया गया।
भगत सिंह शताब्दी वर्ष... में इस घोड़ी का देवनागरी में लिप्यन्तरण व हिन्दी में भावार्थ प्रस्‍तुत किया जा रहा है।

घोड़ी भगत सिंह शहीद

आवो नी भैणों रल गावीए घोडि़यां
जँआं ते होई ए तियार वे हां
मौत कुडि़ नूं परनावण चल्लिया
देशभगत सरदार वे हां।

(आओ बहनो मिलकर घोडि़यां गाएं
बारात तो चलने को तैयार है।
मौत दुल्‍हन को ब्‍याहने के लिए
देशभक्‍त सरदार चला है।)

फाँसी दे तखते वाला खारा बाणा के,
बैठा तूं चौकड़ी मार वे हां
हंझूआं दे पाणी भर नाहवो गड़ोली
लहूँ दी रत्ती मोहली धार वे हाँ।

(फाँसी के तख्ते को पटरी बनाकर
तुम चौकड़ी मारकर बैठे हो।
लोटे में आंसुओं के जल को भरकर नहाओ (1)
लहू की लाल मोटी धार बनी है।)

फाँसी दी टोपी वाला मुकुट बणा के,
सिहरा तूँ बद्धा झालरदार वे हाँ।
जंडी ते वड्ढी लाडे जोर जुलम दी
सबर दी मार तलवार वे हाँ।

(फाँसी की टोपी वाला मुकुट बनाकर
तुमने झालरों वाला सेहरा पहना है
जोर जुलम की जंडी(2) को तुमने
सब्र की तलवार से काट दिया है।)

राजगुरु ते सुखदेव सरबाले
चढि़या ते तूँ ही विचकार वे हाँ
वाग फडाई तैथों भैणा ने लैणी
भैणा दा रखिया उधार वे हाँ।

(राजगुरु व सुखदेव तुम्‍हारे सरबाले बने हैं।
और तुम उनके बीच में चढ़कर बैठे हो।
घोड़ी की लगाम पकड़ाने का शगुन तुमने बहनों से उधार रखा है।)

हरी किशन तेरा बणिया वे सांढ़ू,
ढुक्के ते तुसीं इको बार वे हाँ
पैंती करोड़ तेरे जांइ वे लाडिया
कई पैदल ते कई सवार वे हाँ।

(हरिकिशन (3) तुम्‍हारा साढ़ू भाई बना है
तुम दोनों एक ही द्वार पर पहुँचे हो
ओ दूल्हे, तुम्‍हारे पैंतीस करोड़ (4) बाराती हैं
कुछ पैदल व कुछ सवारियों पर हैं।)


कालीआँ पुशाकाँ पाके जँआं जु तुर पईं,
ताइर वी होइया ए तिआर वे हाँ।

(काली पोशाकें पहनकर बारात जब
चल पड़ी तो तायर भी तैयार हो गया है।)

नोट-
1. घोड़ी पर चढ़ने से पहले दूल्हे को नहलाया जाता है।
2. दूल्हा घोड़ी पर चढ़कर गांव के बाहर जंड के वृक्ष को तलवार से काटता है, यह भी इस रीति का हिस्सा है।
3. हरिकिशन को पंजाब विश्वविद्यालय, लाहौर में गर्वनर पर गोली चलाने के कारण 1 मई 1931 को फाँसी दी गयी थी।
4. पैंतीस करोड़ उन दिनों अविभाजित भारत की आबादी थी। शायर तायर ने 1998 में इसे दोबारा गाते समय अस्सी करोड़ कर दिया था।

(जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर चमन लाल, भगत सिंह के विशेषज्ञ हैं। चमन लाल का यह लेख 'साहित्य में भगत सिंह' शीर्षक से नया ज्ञानदोय के अंक 49, मार्च 2007 में छपा है। यहां प्रस्तुत हिस्सा उसी लेख का है। नया ज्ञानोदय से साभार के साथ यह लेख शहीद-ए-आज़म के पाठकों के लिए प्रस्तुत किया गया।)

Thursday, September 27, 2007

भगत सिंह होने का मतलब

28 सितम्‍बर को भगत सिंह का जन्‍म दिन है। और यह साल इस मायने में खास है कि यह उनकी जन्‍म शताब्‍दी का साल है। भगत सिंह के विचारों को लेकर कई राय हैं। कोई डन्‍हें बम पिस्‍तौल वाला ही मानना चाहता है तो कोई उनके अंतिम दौर के विचार को काफी अहम मानता है। ... 'हिन्‍दुस्‍तान' के आज के अंक में भगत सिंह के बारे में प्रख्‍यात इतिहासकार  इरफान हबीब की राय छपी है। हिन्‍दुस्‍तान से साभार यह राय हम शहीद-ए-आजम के पाठकों के लिए पेश कर रहे हैं।

भगत सिंह होने का मतलब

इरफान हबीब

'मैं घोषणा करता हूं कि मैं आतंकवादी नहीं हूं और अपने क्रांतिकारी जीवन के आरंभिक दिनों को छोड़कर शायद कभी नहीं था। और मैं मानता हूं कि उन तरीकों से हम कुछ हासिल नहीं कर सकते।'

-भगत सिंह

निस्संदेह भगतसिंह भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के सर्वाधिक प्रसिद्ध शहीदों में से एक रहे हैं। हालांकि अधिकतर उन्हें गोली चलाने वाले युवा राष्ट्रवादी की रोमांटिक छवि से परे नहीं देख पाते। इसका कारण शायद यह है कि उनकी यही छवि औपनिवेशिक दौर के सरकारी दस्तावेजों में दर्ज की गई। लोग भगतसिंह को एक ऐसे शख्स के रूप में देखते थे,जो अपने हिंसात्मक कारनामों से ब्रिटिश शासन को आतंकित कर देता था। उनकी जबरदस्त हिम्मत ने उन्हें एक प्रतिमान बना दिया। भगतसिंह को आज भी प्यार और श्रद्धा की नजर से देखा जाता है,लेकिन क्या हमें उनकी राजनीति और विचारों के बारे में कुछ पता है?और क्या उनके हिंसा व आतंक में विश्वास के शुरुआती नजरिए के बारे में भी कुछ पता है (जो मौजूदा आतंकवादी हिंसा से एकदम अलग चीज थी),जिसे उन्होंने शीघ्र ही एक ऐसे क्रांतिकारी दृष्टिकोण में बदल लिया जो स्वाधीन भारत को एक धर्मनिरपेक्ष,समाजवादी और समतावादी समाज में बदलने से वास्ता रखता था।

भगत सिंह को जनता की ओर से इस तरह का मुक्त समर्थन क्यों मिला,जबकि उसके पास पहले से ही नायकों की कमी नहीं थी?इस सवाल का जवाब देना आसान नहीं है। जब देश के सबसे बड़े भगत सिंह को स ुनाया गया सजा-ए-मौत का फतवा नेताओं का तात्कालिक लक्ष्य स्वतंत्रता प्राप्ति था,उस समय भगत सिंह,जो बमुश्किल अपनी किशोरावस्था से बाहर आये थे,उनके पास इस तात्कालिक लक्ष्य से परे देखने की दूरदृष्टि थी। उनका दृष्टिकोण एक वर्गविहीन समाज की स्थापना का था और उनका अल्पकालिक जीवन इस आदर्श को समर्पित रहा। भगत सिंह और उनके साथी दो मूलभूत मुद्दों को लेकर सजग थे,जो तात्कालिक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिक थे। पहला,बढ़ती हुई धार्मिक व सांस्कृतिक वैमन्स्यता और दूसरा,समाजवादी आधार पर समाज का पुनर्गठन। भगत सिंह और उनके कामरेडों ने क्रांतिकारी पार्टी के मुख्य लक्ष्यों में से एक के बतौर समाजवाद को लाने की जरूरत महसूस की। सितंबर 1928 में दिल्ली स्थित फिरोजशाह कोटला के खंडहरों में महत्वपूर्ण क्रांतिकारियों की बैठक में इस पर विचार विमर्श के बाद हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचआरए) में सोशलिस्ट शब्द जोड़ कर एचएसआरए बना दिया गया। भगत सिंह अपने साथियों को यह समझाने में सक्षम थे कि भारत की मुक्ति सिर्फ राजनीतिक आजादी में नहीं,बल्कि आर्थिक आजादी में है।

समाजवाद के प्रति उनकी प्रतिबद्धता 8 अप्रैल 1929 को उनके द्वारा असेंबली में बम फेंकने की कार्रवाई में भी प्रकट हुई। भगतसिंह दरअसल 1920 के दौर में सांप्रदायिकता के बढ़ते खतरे के प्रति सजग हुए। उसी दशक में आरएसएस और तबलीगी जमात का उदय हुआ। उन्होंने सांप्रदायिकतावादी प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने की नीति पर सवाल किए।

एक राजनीतिक विचारक के रूप में वह तब परिपक्व हुए जब अपनी शहादत से पहले उन्होंने दो साल जेल में रहते हुए गुजारे। उनकी जेल डायरी पूरी स्पष्टता से उनकी राजनीतिक बनावट के विकास को दिखाती है। जेल में ही उन्होंने अपना विख्यात लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूं' लिखा। यह लेख तार्किकता की दृढ़ पक्षधरता के साथ अंधविश्वास का पुरजोर खंडन करता है। भगत सिंह मानते थे कि धर्म शोषकों के हाथ का औजार है जिसका इस्तेमाल वे जनता में ईश्वर का भय बनाए रखकर उनका शोषण करने के लिए करते हैं।

एचएसआरए के नेताओं का वैज्ञानिक दृष्टिकोण समय के साथ विकसित हुआ और उनमें से अधिकतर समाजवादी आदर्श या साम्यवाद के करीब आए। वे व्यक्तिगत कार्रवाइयों के बजाय जनांदोलन में भरोसा रखते थे। भगत सिंह उस संघर्ष को लेकर एकदम स्पष्ट राय रखते थे। उन्होंने अपने आखिरी दिनों में कहा था-

‘भारत में यह संघर्ष तब तक जारी रहेगा जब तक मुट्ठी भर शोषक आम जनता के श्रम का शोषण करते रहेंगे। यह कोई मायने नहीं रखता कि ये शोषक खालिस ब्रिटिश हैं, ब्रिटिश व भारतीय दोनों सम्मिलित रूप से हैं या विशुद्ध भारतीय हैं।’

हमें भगतसिंह की जन्मशती के मौके पर उनके द्वारा सोचे गए शासन के वैकल्पिक ढांचे पर रोशनी डालनी चाहिए,जिसमें आतंक या हिंसा नहीं बल्कि सामाजिक और आर्थिक न्याय सर्वोपरि होगा।

Monday, September 03, 2007

लाहौर में भगत सिंह का स्मारक

चलिये देर से ही सही, लोगों को लगा तो कि भगत सिंह की शहादत हिन्‍दुस्‍तान-पाकिस्‍तान की साझी विरासत है। वरना भगत सिंह की जन्‍म शताब्‍दी का साल गुज़रा जा रहा था, लेकिन भगत सिंह जहां पैदा हुए और भगत सिंह के विचार जहां परवान चढ़े, वहां की सुध किसी को नहीं थी। जी हां, मैं सैंतालिस के पहले के हिन्‍दुस्‍तान और आज के हिन्‍दुस्‍तान-पाकिस्‍तान की बात कर रहा हूँ। भगत सिंह फैसलाबाद में पैदा हुए थे, वैचारिक परवरिश लाहौर में पाई और शहादत भी इसी माटी पर दी। ये सब जगह अब पाकिस्‍तान में है। भगत सिंह की शहादत को याद करने का इससे अच्‍छा तरीका और क्‍या हो सकता है कि भारत-पाक मिलकर उनकी जत्‍म शताब्‍दी मनायें। सरकारी तौर पर तो अभी यह मुमकिन नहीं लगता पर दोनों मुल्‍कों के लोग ज़रूर कुछ करने की कोशिश कर रहे हैं।

इस बीच, पाकिस्‍तान के अखबार 'डेली टाइम्‍स' ने एक अच्‍छी खबर दी है। लाहौर में दियाल सिंह रिसर्च एंड कल्‍चरल फोरम ने भगत सिंह पर एक सेमिनार का आयोजन किया। इस आयोजन में भारत के प्रतिनिधि भी शामिल थे। सेमिनार में पाकिस्‍तानी पंजाब के गर्वनर सेवानिवृत्‍त लेफ्टीनेंट जनरल खालिद रशीद ने वादा किया कि भगत सिंह की याद में एक स्‍मारक बनाया जायेगा। यह भी तय हुआ कि रिसर्च के बाद भगत सिंह से जुड़ी चीज़ों की नुमाइश लाहौर संग्रहालय में लगायी जायेगी। खालिद ने भगत सिंह के कामों की तारीफ की और उनकी कुर्बानी को नौजवानों के लिए प्रेरणा देने वाला बताया। इस मौके पर दियाल सिंह रिसर्च एंड कल्‍चरल फोरम के निदेशक जाफर चीमा ने जानकारी दी कि भगत सिंह को शहीद का खिताब मौलाना जाफर अली खान ने दिया था।

इस सेमिनार की पूरी ख़बर डेली टाइम्‍स पर पढने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें-
Memorial will be built to Bhagat Singh, says governor

Thursday, July 12, 2007

हम हैं इसके मालिक, हिन्‍दुस्‍तान हमारा

सन् 1857 के महासमर के 150 साल हो रहे हैं। हमारी कोशिश होगी कि शहीद ए आज़म पर इस महासमर से जुड़ी चीज़ें पाठकों के लिए मुहैया करायें। ख़ासकर वैसी सामग्री, जो आमतौर पर नहीं मिल पातीं।

आज यहां एक ऐसी कविता दी जा रही है, जिसे आप इस मुल्‍क का पहला क़ौमी तराना कहें तो शायद गलत नहीं होगा। आज से 150 साल पहले, मुल्‍क़ का ऐसा तसव्‍वुर नहीं था। राजा- रजवाड़ों के दिमाग में भी नहीं। यह गीत महासमर के एक मशहूर योद्धा अजीमुल्‍ला खां ने रचा था।

हम हैं इसके मालिक हिन्‍दुस्‍तान हमारा,
पाक वतन है कौम का जन्‍नत से भी न्‍यारा।

ये है हमारी मिल्कियत, हिन्‍दुस्‍तान हमारा
इनकी रूहानियत से रोशन है जग सारा।

कितना कदीम कितना नईम, सब दुनिया से प्‍यारा,
करती है ज़रख़ेज़ जिसे गंगो-जमुन की धारा।

ऊपर बर्फीला पर्वत पहरेदार हमारा,
नीचे साहिल पर बजता सागर का नक्‍कारा।

इसकी खानें उगल रही हैं, सोना, हीरा, पारा,
इसकी शानो-शौकत का दुनिया में जयकारा।

आया फिरंगी दूर से ऐसा मंतर मारा,
लूटा दोनों हाथ से, प्‍यारा वतन हमारा।

आज शहीदों ने है तुमको अहले वतन ललकारा,
तोड़ो गुलामी की जंज़ीरें बरसाओ अंगारा।

हिन्‍दू-मुसलमां, सिख हमारा भाई-भाई प्‍यारा,
यह है आजादी का झंडा, इसे सलाम हमारा।

Tuesday, July 10, 2007

पाश: शहीद भगत सिंह

अवतार सिंह संधु 'पाश' पंजाबी के प्रख्‍यात शायर हैं। वे वामपंथी आंदोलन में सक्रिय रहे।  आजाद मुल्‍क़ के लिए जैसे समाज का ख्‍़वाब भगत‍ सिंह देख रहे थे, पाश वैसे ही समाज बनाने की जद्दोजहद में लगे थे। पंजाब में जिस दौरान अलगाववादी आंदोलन चरम पर था, पाश ने इसका खुलकर विरोध किया। ज़ाहिर है, वे इसके ख़तरे से अच्‍छी तरह वाकि़फ़ भी थे। ... पाश भी उसी दिन शहीद हो गये जिस दिन भगत सिंह शहीद हुए थे... सिर्फ सन् अलग- अलग थे। पाश महज़ 38 साल की उम्र में 23 मार्च 1988 को शहीद हो गये थे। भगत‍ सिंह पर लिखी गयी उनकी कविता यहॉं पेश है-

 

शहीद भगत सिंह

 

पहला चिंतक था पंजाब का

सामाजिक संरचना पर जिसने

वैज्ञानिक नज़रिये से विचार किया था

 

पहला बौद्धि‍क

जिसने सामाजिक विषमताओं की, पीड़ा की

जड़ों तक पहचान की थी

 

पहला देशभक्‍त

जिसके मन में

समाज सुधार का

ए‍क निश्चित दृष्टिकोण था

 

पहला महान पंजाबी था वह

जिसने भावनाओं व बुद्धि‍ के सामंजस्‍य के लिए

धुँधली मान्‍यताओं का आसरा नहीं लिया था

ऐसा पहला पंजाबी

जो देशभक्ति के प्रदर्शनकारी प्रपंच से

मुक्‍त हो सका

पंजाब की विचारधारा को उसकी देन

सांडर्स की हत्‍या

असेम्‍बली में बम फेंकने और

फॉंसी के फंदे पर लटक जाने से कहीं अधिक है

भगत सिंह ने पहली बार

पंजाब को

जंगलीपन, पहलवानी व जहालत से

ब‍ुद्धि‍वाद की ओर मोड़ा था

जिस दिन फांसी दी गयी

उसकी कोठरी में

लेनिन की किताब मिली

जिसका एक पन्‍ना मोड़ा गया था

पंजाब की जवानी को

उसके आखिरी दिन से

इस मुड़े पन्‍ने से बढ़ना है आगे

चलना है आगे

(पंजाबी से अनुवाद: मनोज शर्मा, साभार: उद्भावना)

Monday, June 25, 2007

वह शहीद नहीं था

("वह शहीद नहीं था" कविता पंजाबी के कवि सुरजीत पातर की है। भगत सिंह (Bhagat Singh)की याद से जुड़ी यह कविता हिन्दी में उद्भावना में प्रकाशित हुई है। शहीदे आजम SHAEED E AZAM के पाठकों के लिए हम इसे यहां साभार पेश कर रहे हैं।)

उसने कब कहा

शहीद हूं मैं

फांसी का रस्सा चूमने से कुछ रोज पहले

उसने तो केवल यही कहा था

कि मुझसे बढ़ कौन होगा खुशकिस्मत ...

मुझे नाज़ है अपने आप पर

अब तो बेहद बेताबी से

अंतिम परीक्षा की है प्रतिक्षा मुझे

कब कहा था उसने : मैं शहीद हूं


शहीद तो उसे धरती ने कहा था

सतलुज की गवाही पर

शहीद तो, पांचों दरिया ने कहा था

गंगा ने कहा था

ब्रह्मपुत्र ने कहा था

शहीद तो उसे वृक्षों के पत्ते-पत्ते ने कहा था


आप जो अब धरती से युद्धरत हो

आप जो नदियों से युद्धरत हो

आप जो वृक्षों के पत्तों तक से युद्धरत हो


आपके लिये बस दुआ ही मांग सकता हूं मैं

कि बचाये आपको

रब्ब

धरती के शाप से

नदियों की बद्दुआ से

वृक्षों की चित्कार से।

(पंजाबी से अनुवाद- मनोज शर्मा)

Tuesday, May 01, 2007

क्या हम भगत सिंह को जानते हैं?

कुँवरपाल सिंह

पूछि तो कहते हैं कि हाँ बहुत बड़ा क्रांतिकारी बलिदानी व्यक्ति था। देश के लिए अपनी जान दे दी। हमारा प्रेरणा स्रोत है। किन्तु बहुत कम लोग जानते हैं कि भगत सिंह बीसवीं शताब्दी के राजनीतिक कार्यकर्ताओं के बीच एक प्रमुख बुद्धिजीवी भी थे। आज उन्हें इसी रूप में याद करने की आवश्यकता है। लगभग दो साल वे जेल में रहे। इस बीच उन्होंने बहुत सी पुस्तकें पढ़ीं इनमें यूरोप-अमरीका के विद्वान, चिंतक, बुद्धिजीवी साहित्यकारों की पुस्तकें हैं। उनका पूर्ण राजनीतिक जीवन 18 साल का रहा और कुल उम्र 25 साल। अजीब संयोग है कि रानी लक्ष्मीबाई भी 23 साल की उम्र में अँग्रेज़ों से लड़ते हुए शहीद हो गयीं। भगत सिंह के अन्य साथी यतीन्द्रनाथ ने 65 दिन तक आमरण अनशन किया-जेल सुधार तथा मानवाधिकारों के लिए। इसके बाद वह भी 23 वर्ष की आयु में शहीद हो गये। उनकी शहादत ने पूरे देश को झकझोर दिया। ब्रिटिश सरकार भी मजबूर हो गयी। क्रान्तिकारियों का यह प्रभाव भी पड़ा कि वहाँ पढ़ने लिखने की सामग्री दी जाने लगी। यह सुधार कुछ मामूली परिवर्तनों के साथ, लगभग उसी रूप में आज भी मौजूद है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि उनकी चार महत्वपूर्ण कृतियाँ- The ideal Of Socialism (समाजवाद का आदर्श), History of Revolutionary Movement in India (भारत में क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास), At the Door of Death (मौत के दरवाजे पर), जेल से बाहर तो आई थीं किन्तु वे कहाँ गयीं किसी को पता नहीं। उनकी जेल नोटबुक जरूर प्रकाश में आई, जो उनके भाई कुलबीर सिंह के पास थी। यह बात रूसी विद्वान एल.वी. मित्रोखिन के जरिए मालूम हुई। यह नोटबुक उन्हें 1977 में मिल गयी। 1981 में उन्होंने भगत सिंह पर एक विस्तृत शोध-निबंध लिखा था। बाद में जगमोहन सिंह तथा डॉ. चमनलाल ने भगत सिंह के दस्तावेजों को हिन्दी में प्रकाशित करवाया। फिर भगत सिंह की जेल नोटबुक को लम्बी भूमिका के साथ 'शहीदे आजम की जेल डायरी' नाम से सत्यम वर्मा ने संपादित किया तथा यह 1999 में परिकल्पना प्रकाशन, लखनऊ से प्रकाशित हुई। यह जेल नोटबुक भगत सिंह तथा क्रांतिकारी आंदोलन के बारे में हमारी ज्ञान-वृद्धि करती है। भगत सिंह लाहौर जेल में 1929 से 23 मार्च, 1931 तक, फाँसी पर चढ़ाए जाने से पूर्व नोटबुक लिखते रहे।

बीसवीं सदी के किसी भी लेखक या बुद्धिजीवी में इतनी वैचारिक प्रगति नहीं दिखती, जितनी भगत सिंह में। 1918 से उनका आंदोलनकारी सफर आरंभ हुआ। तब वे आर्य समाजी थे, फिर सुधारवादी फिर अराजकतावादी होते हुए अंत में वैज्ञानिक समाजवाद के साये में आये। आतंकवाद को वे गलत समझते थे। उनका विचार था कि बिना संगठन और पार्टी के कोई परिवर्तन संभव नहीं है, क्रांतिकारी के रूप में ये दोनों बहुत आवश्यक हैं। लेनिन उनके आदर्श थे। कहना प्रासंगिक होगा कि फाँसी का बुलावा आया तो भगत सिंह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे, तब उन्होंने एक हाथ उठा कर कहा कि रुको, एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है। उन्होंने नौजवानों से अपील की कि ''व्यवस्थित ढंग से आगे बढ़ने के लिए आपको जिसकी सबसे अधिक आवश्यकता है, वह है एक पार्टी जिसके पास जिस टाइप के कार्यकर्ताओं का ऊपर जिक्र किया जा चुका है, वैसे कार्यकर्ता हों-ऐसे कार्यकर्ता जिनके दिमाग साफ हों और जिनमें समस्याओं की तीखी पकड़ हों और पहल करने और तुरन्त फैसला लेने की क्षमता हो। इससे पार्टी का अनुशासन बहुत कठोर होगा और यह जरूरी नहीं है कि वह भूमिगत पार्टी हो, बल्कि भूमिगत नहीं होनी चाहिए- पार्टी को अपने काम की शुरूआत अवाम के बीच प्रचार से करनी चाहिए। किसानों और मज़दूरों को संगठित करने और उनकी सक्रिय सहानुभूति प्राप्त करने के लिए यह बहुत जरूरी है। इस पार्टी को कम्युनिस्ट पार्टी का नाम दिया जा सकता है।'' (दो फरवरी 1931 को युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम अपील से) भगत सिंह ने इस देश की जनता को तीन नारे दिये- 1. इंकलाब-जिन्‍दाबाद, 2. किसान-मजदूर जिन्‍दाबाद (कम्युनिस्ट पार्टी का आज भी यही नारा है) 3. साम्राज्यवाद का नाश हो। ये तीनों नारे आज हमारी श्रमिक एवं संघर्षशील जनता के कंठहार हैं। भगत सिंह ने महत्वपूर्ण कार्य यह किया कि अपने समय के क्रांतिकारी आंदोलन को पुराने क्रांतिकारी आंदोलन की रूढ़वादी परम्परा से विमुक्त किया। पुराने क्रांतिकारी किसी किसी देवी-देवता के उपासक थे और दृढ़ ईश्वर विश्वासी थे। वे इस सबको नियति का खेल मानते थे। भगत सिंह ने कहा कि इस प्रकार के क्रांतिकारी अंत में साधु-सन्यासी बन जाते हैं। उन्होंने धर्म को राजनीति से अलग रखने का सबसे अधिक प्रयास किया। राजनीति और धर्म के मेल में देशभक्ति की भावना मर जाती है, अपने इसी विचार को नौजवानों तक पहुँचाने के लिए भगत सिंह ने एक लेख लिखा-'मैं नास्तिक क्यों हूँ' जो आज भी बहुत चाव से पढ़ा जाता है। भगत सिंह ने यह भी कहा कि ''हमें धर्मनिरपेक्ष राजनीति की जरूरत है। हमें ऐसी राजनीति की जरूरत नहीं जो किसी भी धर्म को महत्व दे।'' भगत सिंह की यह बात बहुत सही ठहरती है क्यों कि पिछले 40 साल से धर्म की राजनीति हो रही है और दंगे कराये जा रहे हैं। आज तो इस में जाति का भी समावेश हो गया है। धर्म की राजनीति करने वाले लोग हर समस्या का हल अतीत में देखते हैं। उनके लिए हर समस्या का हल उनके धार्मिक ग्रंथों में निहित है। ऐसे दिवास्वप्न देखने वाले लोग देश का क्या भला करेंगे। भगत सिंह की रचनाओं के आधार पर उनका एक संक्षिप्त मूल्यांकन हमने किया है। यह वर्ष उनका जन्म शताब्दी वर्ष है। 'वर्तमान साहित्य' उन पर यत्किंचित सामग्री दे रहा है। भगत सिंह पर उनके साथी शिव वर्मा के संस्मरण तथा उनके द्वारा लिखी पुस्तक 'भगत सिंह की चुनी हुई रचनाएं' हिन्दी अँग्रेज़ी दोनों में उपलब्ध हैं। इसे विशेष रूप से पढ़ने का आग्रह है। भगत सिंह ने भारत में क्रांति की संभावना पर जो विचार दिया है वह आज भी सार्थक है-''क्रान्ति परिश्रमी विचारकों और परिश्रमी कार्यकर्ताओं की पैदावार होती है। दुर्भाग्य से भारतीय क्रान्ति का बौद्धिक पक्ष हमेशा दुर्बल रहा है। इसलिए क्रान्ति की आवश्यक चीजों और किये गये काम के प्रभाव पर ध्यान नहीं दिया गया। इसलिए एक क्रान्तिकारी को अध्ययन मनन को अपनी पवित्र जिम्मेदारी बना लेना चाहिए।''

(‍डॉ. कुँवरपाल सिंह वरिष्‍ठ साहित्‍यकार हैं और इस वक्‍त 'वर्तमान साहित्‍य' का सम्‍पादन कर रहे हैं।)