Wednesday, October 17, 2007

और गुरबत में हैं क्रांतिकारियों के वंशज

सन् 1857 भारतीय इतिहास में एक महत्‍वपूर्ण मोड़ है। इसने न सिर्फ भारतीय राजनीति और शासन की दिशा बदली बल्कि आने वाले समय में सामाजिक सम्‍बंधों और समुदायों के विकास पर जबरदस्‍त असर डाला। यह असर आज भी महसूस किया जा सकता है। अमर उजाला के 17 अक्‍तूबर के अंक में अमरेश मिश्र का इसी मुद्दे पर केन्द्रित एक लेख छपा है। 1857 पर हिन्‍दी और अंग्रेजी में सबसे सक्रिय लेखन अमरेश मिश्र कर रहे हैं। उन्‍होंने कई चीज़ों को गर्दो गुबार के ढेर से सामने लाने की कोशिश की है। उनकी कई स्‍थापनाओं पर विवाद भी है। इसके बावजूद जो तथ्‍य वे सामने लेकर आ रहे हैं, वे बहुत कुछ सोचने पर मज़बूर कर देते हैं। अमर उजाला से साभार यह लेख शहीद-ए-आज़म के पाठकों के लिए।

1857 में अंगरेजों का साथ देने वालों पर खूब बरसी समृद्धि
अमरेश मिश्र
बहादुरशाह जफर के एक वंशज द्वारा लाल किला की संपत्ति पर दावा ठोकने संबंधी खबर ने एक महत्वपूर्ण सवाल खड़ा किया है कि 1857 में अंगरेजों के खिलाफ जिन परिवारों और समुदायों ने हथियार उठाए थे, वे आज किस हाल में हैं?

1857 को भारत की आजादी की पहली जंग कहा जाता है। अगर ऐसा है, तो क्या कारण है कि जिन परिवारों ने अंगरेजों का समर्थन किया, वे आजादी के बाद समृद्ध होते चले गए, जबकि अंगरेजों से लोहा लेने वाले टीपू सुल्तान, बहादुरशाह जफर और वाजिद अली शाह के वंशज गुरबत में जी रहे हैं?
कई समुदायों के साथ भी यही हुआ। गुर्जरों की ही मिसाल लीजिए। राजस्थान के टोंक से लेकर हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इलाके में गुर्जर क्रांतिकारी 10 मई, 1857 से 1859 के अंत तक सक्रिय रहे। ब्रिटिश अफसरों ने गुर्जर 'उपद्रव' की कटु आलोचना की थी। आज गुर्जरों में इतनी ज्यादा बेरोजगारी है कि घुमंतुओं और व्यापारियों का यह गर्वीला समुदाय अनुसूचित जनजाति की हैसियत पाने के लिए संघर्ष करने को मजबूर है। मुसलमान मेवातियों की कहानी इससे भी ज्यादा दु:खद है। 1857 में इलाहाबाद से हरियाणा व पूर्वी राजस्थान तक मेवाती या मेव अंगरेजों से डटकर लड़े। दरअसल, इलाहाबाद के मेवों ने दिल्ली के किले को बचाने के लिए जान की बाजी लगा दी थी
रूहेलखंड में कई राजस्थानी मेव अंगरेज सैनिकों के हाथों मारे गए थे। मुगल-मराठा शासनकाल के दौरान मेवों की पहचान समृद्ध किसानों और चर्म व्यापारियों के समुदाय के रूप में थी। लेकिन आज उन्हें पिछड़ा कहा जाता है। उन्हें आरक्षण का भी लाभ नहीं मिला।

1857 में खेतिहर जाटों में हरियाणा और दिल्ली-पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सलकलैन, मावी, दहिया और हुडा गोत्रों ने दूसरे जाट गोत्रों को साथ लेकर अंगरेजों के छक्के छु़ड़ाए थे। ठीक इसके विपरीत अहलावत और घटवाल गोत्रों ने अंगरेजों का साथ दिया था। वर्तमान में कुछ अपवादों को छोड़कर सलकलैन, मावी, दहिया और हुडा गरीब या मध्यवर्ती किसान हैं, जबकि अहलावत और घटवाल दिल्ली-हरियाणा के सबसे समृद्ध जाट गोत्रों में शुमार हैं। इसी तरह रेवाड़ी और हरियाणा के अंगरेज-विरोधी राव-अहीरों में भी कुछ लोगों को छोड़कर बाकी मध्यवर्ती या गरीब किसान हैं। मुसलमान रांगड़ और भट्टी जैसे हरियाणा के दूसरे ब्रिटिश-विरोधी समुदायों पर अंगरेजों के जातिसंहार का ऐसा कहर बरपा था कि 1857 के बाद उनका सफाया ही हो गया था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दलितों में वाल्मीकियों और जाटवों ने 1857 में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। आज उनकी स्थिति खराब है।

19वीं सदी में दिल्ली शहर के अंदर पूरबिया-पश्चिमिया कामगारों और 1803 से पूर्व के मुगल-मराठा काल के मुसलमान और खत्री अभिजात वर्ग ने अंगरेजों का विरोध किया। जबकि 1803 के बाद के खत्री और पंजाबी हिंदू अभिजात वर्ग ने उनका समर्थन किया था। 1857 के दौरान दिल्ली के बाहर के पूरबिया किसान सिपाहियों ने 1803 के बाद के खत्री-हिंदू पंजाबी अभिजात वर्ग को बेदखल करने के लिए दिल्ली के पूरबिया-पश्चिमिया कामगारों और हरियाणा के जाट-गुर्जर-पश्चिमिया किसानों को अपने साथ लिया था।

हैरानी की बात नहीं है कि 1803 के बाद के दिल्ली के अभिजात वर्ग ने 1857 में अंगरेजों का साथ दिया था। 1857 के मई से सितंबर तक दिल्ली उपनिवेश-विरोधी लड़ाई के साथ-साथ एक भारी आंतरिक वर्गीय और सांस्कृतिक संघर्ष का भी गवाह बनी थी। खत्री-पंजाबी हिंदू अभिजात वर्ग को क्रांतिकारी दहशत का दंश झेलना पड़ा था। 21 सितंबर, 1857 के बाद ब्रिटिश प्रतिहिंसा ने क्रांति-विरोधी आतंक का रूप धारण कर लिया। ब्रिटिश अफसरों ने कूचा चीलन, बल्लीमारान, दरीबा, फरहत बख्श और जामा मसजिद इलाके में मुसलमानों की संपत्तियों और मोहल्लों को तबाह कर दिया। उन मोहल्लों के हजारों मुसलमानों को यमुना के किनारे रस्से से बांधकर गोली से उड़ा दिया गया। उनमें मशहूर विद्वान, लेखक, कवि और मौलवी भी शामिल थे। हिंदू पूरबिया और पश्चिमियों का भी वही हश्र हुआ।

उन मोहल्लों में जो कुछ भी शेष रह गया था, वह 1947 में दिल्ली में हुए सांप्रदायिक दंगे के दौरान लूट लिया गया। हजारों मुसलमान मार डाले गए। पुरानी दिल्ली में शवों के अंबार कई दिन तक सड़ते रहे। हाल में हुए शोध से, जिनमें एलेक्स वॉन तुंजेलमान लिखित 'द इंडियन समर : सीक्रेट हिस्ट्री ऑफ द एंड ऑफ ऐन एंपायर` भी शामिल है, पता चलता है कि यह सिर्फ सांप्रदायिक दंगा नहीं था। दरअसल, यह मुसलमान-विरोधी बगावत थी। दूसरे शब्दों में यह विभाजन के बाद अस्तित्व में आए नए भारतीय राज्य की धर्मनिरपेक्ष बुनियाद के खिलाफ दक्षिणपंथ का विद्रोह था। इस दौरान दंगाइयों ने किसी सैन्य शक्ति की तरह मशीन गन, ग्रेनेड और मोर्टार का योजनाबद्ध तरीके से इस्तेमाल किया। इस बगावत के पीछे आरएसएस का हाथ था। इस काम में आरएसएस को अंगरेजों और खत्री-पंजाबी हिंदू के उसी गठबंधन का साथ मिला, जिसने 1857 में भी अंगरेजों का समर्थन किया था।

आज के उत्तर प्रदेश में हर क्षेत्र में कुछ 'खास' सामाजिक शक्तियां हैं, जिन्होंने अंगरेजों से लोहा लिया था। उन शक्तियों में मध्य दोआब के भदौरिया, चौहान और गौतम राजपूत, ब्रज-अलीगढ़ मथुरा के जाट और अहीर, रूहेलखंड के रोहिल्ला पठान, शेख, सैयद, राजपूत, दलित, अहिर और कुर्मी, कन्नौज, लखनऊ और उत्तरी अवध के कान्यकुब्ज ब्राह्मण, पूर्वी और दक्षिणी अवध के सरयूपारी ब्राह्मण, उत्तरी, पूर्वी और दक्षिणी अवध के बैस, रैकवार, बिसेन, बचगोटी, अंबन और जंवार राजपूत, आजमगढ़ के पुलवार राजपूत, जौनपुर और बनारस के राजकुमार राजपूत, भदोही के मौनस राजपूत, बनारस-गोरखपुर क्षेत्र के जुलाहा मुसलमान, सीतापुर और अवध के पासी, सुल्तानपुर के कोइरी, बाराबंकी के कुर्मी, बुंदेलखंड के बुंदेला राजपूत और दलित, गाजीपुर के भूमिहार, फर्रुखाबाद के नवाब का बंगश पठान परिवार, बेगम हजरत महल की अगुआई में वाजिद अली शाह का परिवार, बंदा नवाब शामिल हैं। मुगल-मराठा काल में ये सभी परिवार या समुदाय काफी धनाढ्य हुआ करते थे। हालांकि उनमें से कुछ तो ब्रिटिश शासन काल के दौरान भी अपनी समृद्धि की रक्षा करने में सफल रहे थे, लेकिन सिद्धांत और राष्ट्र से प्रेम के कारण उन्होंने अंगरेजों का विरोध किया।

इसके ठीक विपरीत अवध के बलरामपुर राजा, रूहेलखंड के रामपुर नवाब, बनारस के राजा और बुंदेलखंड के चिरखारी राजा ने अंगरेजों का साथ दिया था। पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दोआब और बुंदेलखंड के बनिया व खत्री और मारवाड़ियों ने भी अंगरेजों का समर्थन किया था। (... जारी)

3 comments:

  1. आभार इस लेख को यहाँ पेश करने का.

    ReplyDelete
  2. कृपया भदोही के मोना राजपूत नहीं, मौनस राजपूत लिखें

    ReplyDelete
  3. कृपया भदोही के मोना राजपूत नहीं, भदोहीं के मौनस राजपूत लिखें ।

    ReplyDelete