बीते कल से सबक सीखने का समय
सन् 1857 में जो हिन्दुस्तान के लिए लड़े, आज उनके वारिसों की हालत कैसी है और जिन्होंने अंग्रेजों का साथ दिया, उनके वशंज आज किस हालत है। युवा इतिहासकार अमरेश मिश्र इसका आकलन कर रहे हैं। इस आकलन की पहली किस्त कल हमने पोस्ट की थी। आज इसकी दूसरी और आखिरी किस्त अमर उजाला में छिपी है। हम अमर उजाला से साभार इसे यहां दे रहे हैं।
उग्रराष्ट्रवाद और पश्चिम परस्ती का घालमेल खतरनाक
अमरेश मिश्र
अंगरेजों ने मार्च, 1858 में अपनी सारी सैन्य ताकत और सभी सहयोगियों को बटोरकर लखनऊ और अवध के क्रांतिकारियों को कुचलने का अभियान छे़ड दिया। नेपाल और कपूरथला के राजा अपने सैनिकों को लेकर ब्रिटिश सेना के साथ थे। 1859 के बाद कपूरथला राजा और दूसरे अंगरेज समर्थक गैर-खालसा सिख सहयोगियों को अवध और गोरखपुर में काफी जमीनें दे दी गईं। देवी सिंह जैसे अंगरेज विरोधी बिसेन तालुकदारों की जमीनें 'विश्वासभाजन' बलरामपुर राजा को दे गई। प्रमुख बैस तालुकदार बेनी माधो की जमीनें भी अंगरेजों के कब्जे में चली गईं। मुरादाबाद के नवाब मज्जू खान और उनके सहयोगी ठाकुर कुंदन सिंह की संपत्ति रामपुर के नवाब खासमखासों को दे दी गईं। मैनपुरी और एटा में भदौरिया, गौतम और चौहान राजपूतों को भी अपनी संपत्तियों से हाथ धोना पड़ा। उनकी जमीनें अंगरेज समर्थक बनियों और खत्रियों को दे दी गईं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में अंगरेज विरोधी भूमिहारों की संपत्ति बनारस के राजा के हवाले कर दी गईं और वह देश के सबसे बड़े अमीरों में शुमार किए जाने लगे।
आज भी उत्तर प्रदेश का परिदृश्य कुछ खास नहीं बदला है। बनारस के राजा समेत जिन घरानों ने अंगरेजों का साथ दिया था, वे धनाढ्य हैं। शहरों में अधिकांश संपत्तियों पर खत्रियों व बनियों का ही नियंत्रण है। लेकिन सबसे ज्यादा खराब हालत उत्तर प्रदेश-बिहार-राजस्थान-मध्य प्रदेश (हिंदी-उर्दू क्षेत्र) के उलेमाओं और सनातन धर्मी साधुओं की है। 1857 में हिंदी-उर्दू क्षेत्र के उलेमाओं ने अंगरेजों के खिलाफ कम से कम सात जिहाद की अगुआई की।
ज्यादातर अंगरेज विरोधी उलेमा 18वीं सदी के शाह वलीउल्ला के नए इसलामी दर्शन से प्रभावित थे। उलेमाओं के खिलाफ अंगरेजों की प्रतिहिंसा अभूतपूर्व थी। लेकिन अंगरेजों के इन अमानवीय कृत्यों ने ब्रिटिश-विरोधी देवबंद स्कूल की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया। 20वीं सदी में वही देवबंद स्कूल आजादी के दीवानों को पैदा करने वाली फैक्टरी के रूप में विकसित हुआ। 20वीं सदी के मशहूर उलेमा मौलाना हुसैन अहमद मदनी ने मोहम्मद अली जिन्ना और मुसलिम लीग के 'द्विराष्ट्र सिद्धांत' का विरोध किया था। मौलाना मदनी का साझा राष्ट्रवाद का सिद्धांत गांधी और पंडित नेहरू के विचारों के काफी करीब और कई मायने में उनसे ज्यादा असरदार था। इसके बावजूद 1857 के उलेमाओं, देवबंद और मौलाना मदनी के क्रांतिकारी योगदान को स्वातंत्र्योत्तर भारत के इतिहास में याद भी नहीं किया जाता है। यूपी-बिहार के उलेमा गुरबत में जी रहे हैं और उनके संगठन जमीयत उलेमा-ए-हिंद को कभी वह स्थान नहीं मिला, जिसका वह हकदार है। उन्हें आज भी वहाबी कहा जाता है, जबकि वे वलीउल्ला के अनुयायी हैं।
इसी तरह नगा साधुओं और गोसाइंयों के सनातन धर्म अखाड़ों ने अनूप गिरि गोसाईं के नेतृत्व में अंगरेजों से खूब लोहा लिया। इन अखाड़ों ने अवध, राजस्थान, उज्जैन, माहेश्वर, नासिक और गुजरात में धर्मयुद्ध का फतवा जारी किया था। 1857 से जु़डी अंगरेजों की प्रतिहिंसा में 30 लाख से ज्यादा सनातन धर्मी साधु मारे गए थे। इसके बावजूद स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका का जिक्र तक नहीं किया जाता है।आज उन अखाड़ों की हालत दयनीय है। इसके ठीक विपरीत, महंत अवैद्यनाथ की अगुआई में गोरखपुर और पूर्वी उत्तर प्रदेश के मठों की समृद्धि देखते बनती है।
आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी 1857 में अंगरेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। शिर्डी के साइंर्बाबा भी उस दौरान सक्रिय थे और वह खुद लक्ष्मीबाई को आशीर्वाद देने पहुंचे थे। इसके बावजूद आज स्वामी अग्निवेश सरीखे आर्य समाजी की पहचान व्यवस्था विरोधी की बन गई है। दूसरी तरफ, शिर्डी के साइंर्बाबा की सूफी परंपरा को जिन 'नए' साइंर्बाबा ने हथिया लिया है, उनका 1857 से दूर-दूर तक का रिश्ता नहीं है।
वर्तमान मध्य प्रदेश, विदर्भ और छत्तीसगढ़ क्षेत्र में जबलपुर-दमोह के लोध, बुंदेला व बघेल राजपूतों और गोंडों ने भी 1857 में अंगरेजों का विरोध किया था। अंगरेज खासकर महाकोशल-नर्मदा के लोधों से बहुत डरते थे। दूसरी तरफ, ग्वालियर के सिंधिया, इंदौर के होलकर और नागपुर के भोंसले घरानों ने अंगरेजों से हाथ मिला लिया था। आज इन्हीं घरानों की तूती बोल रही है, जबकि राजपूत, लोध और गोंड हाशिये पर जीने को अभिशप्त हैं। पश्चिमी भारत में अंगरेजों के खिलाफ हथियार उठाने वालों में महार, मराठा, कुनबी, चितपावन और देशहता ब्राह्मण, रामोशी, कोली और भील प्रमुख थे। आरक्षण से हुई प्रगति के बावजूद महार 17वीं-18वीं सदी के अपने उत्कर्ष काल से कोसों दूर हैं। अंगरेजों के जमाने से ही रामोशियों की पहचान अपराधियों के रूप में की जा रही है। मराठी कुनबियों की हालत भी अच्छी नहीं है। गुजरात में मुसलमानों, भीलों, कोलियों और पाटीदारों ने अंगरेजी शासन को चुनौती देने का साहस किया था। सौराष्ट्र में वघेरों ने भी यह भूमिका निभाई थी। इसलिए आश्चर्य नहीं है कि स्वातंत्र्योत्तर गुजरात में कोली, भील, वघेर, दलित और मुसलमान आज काफी पिछड़े हुए हैं।
दक्षिण भारत में 1857 में रेड्डी अभिजात वर्ग के कम्मा और कापू खेतिहर समुदाय, आंध्र के गिरिजन जनजाति, कर्नाटक के लिंगायत, तमिलनाडु के थेवर और वन्नियार और केरल के मोपला अंगरेजों के खिलाफ लड़े। पश्चिम बंगाल, असम और उत्तर पूर्व के दूसरे क्षेत्रों में अंगरेजों के खिलाफ लड़ने वाले आज अच्छी हालत में नहीं हैं। 1947 के बाद का इतिहास भी देखा जाए, तो 1857 में अंगरेजों के खिलाफ हथियार उठाने वाले परिवारों और समुदायों में एकाध अपवाद को छोड़कर किसी को समृद्धि और ख्याति नसीब नहीं हुई। दरअसल, आज भी उन परिवारों और समुदायों को 'उपद्रवी' के रूप में ही चिन्हित किया जाता है।
अगर देश के 100 या 500 सबसे ज्यादा अमीर पुरुषों और महिलाओं की फेहरिस्त बनाई जाए, तो उसमें 1857 में ब्रिटिश-विरोधी रहे परिवारों या समुदायों में से एक भी नाम शामिल नहीं होगा। यह एक बड़ी कमी है, जिसने स्वातंत्र्योत्तर भारतीय प्रजातांत्रिक पूंजीवादी राज्य और उसकी व्यवस्था की विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचाया है। नतीजतन, राज्य और उसकी व्यवस्था न सिर्फ रुढ़िवादी बल्कि 'सॉफ्ट' और गैर-राष्ट्रवादी भी नजर आ रही है। अति-उग्रराष्ट्रवाद और पश्चिम परस्त मानसिकता एक-दूसरे की पूरक हैं। जितनी जल्दी इस समस्या को दूर किया जाए, इस देश के लिए उतना ही अच्छा होगा। जो लोग इतिहास से नहीं सीखते, वे उसे दोहराते रहने के लिए अभिशप्त होते हैं। इतिहास से यह सबक मिलता है कि जो सामाजिक समूह, समुदाय और परिवार राष्ट्रीय राजनीति में अपने योगदान के बारे में ठगा हुआ महसूस करते हैं, आखिरकार प्रतिशोध के लिए हमला करते हैं। (समाप्त)
आभार इस प्रस्तुति का.
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