... तो भगत सिंह और उनके साथी ये नारे क्यों लगाते थे?
कोई नारा, कोई शख्स या संगठन यूं ही नहीं लगाता. नारों का मुकम्मल दर्शन होता है. वे दर्शन, महज़ चंद शब्दों के ज़रिए विचारों की शक्ल में ज़ाहिर होते हैं. ये मौजूदा हालात पर टिप्पाणी करते हैं. अक्सर ये आने वाले दिनों का ख़ाका भी ज़ाहिर करते हैं. इसलिए कुछ लोग या संगठन कुछ नारों पर ज़ोर देते हैं और कुछ, कुछ नारों से दूर रहते हैं. इसलिए नारों के पीछे छिपे विचारों को जानना, उनके इतिहास को समझना ज़रूरी होता है.
आज 23 मार्च है. 1931 में आज ही के दिन सुखदेव, राजगुरु और भगत सिंह को फांसी दी गई थी. ऐसे वक़्त में जब नारों के ज़रिए खेमेबंदी हो रही हो, यह देखना दिलचस्प होगा कि आज़ादी के आंदोलन की सबसे मज़बूत क्रांतिकारी धारा ने अपने लिए क्या नारे चुने थे.
इतिहासकार बताते हैं कि हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) की ओर से जब भगत सिंह और बटुकेश्वदर दत्त ने असेम्बली में बम फेंका तो उन्होंने तीन नारे लगाए. ये नारे थे- ‘इंक़लाब ज़िन्दाबाद’, ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ और ‘दुनिया के मज़दूरों एक हों’...
भगत सिंह और उनके साथियों का एक और संगठन था, नौजवान भारत सभा... इरफ़ान हबीब बताते हैं कि वह (नौजवान भारत सभा), साम्प्रदायिक सौहार्द्र को राजनीतिक कार्यक्रम का एक अहम हिस्सा मानती थी. लेकिन कांग्रेस के विपरीत वह न तो अलग-अलग धार्मिक मतों के तुष्टिकरण में यक़ीन करती थी और न ही सेक्यूलरिज़्म के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दर्शाने के लिए ‘अल्लाहो अकबर’, ‘सत श्री अकाल’ और ‘वंदे मातरम’ के नारे लगाती थी. इसके विपरीत वह ‘इंक़लाब ज़िन्दाबाद’ और ‘हिन्दुस्तान ज़िन्दाबाद’ के नारे लगाती थी.
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