क्या हम भगत सिंह को जानते हैं?
कुँवरपाल सिंह
पूछिए तो कहते हैं कि हाँ बहुत बड़ा क्रांतिकारी बलिदानी व्यक्ति था। देश के लिए अपनी जान दे दी। हमारा प्रेरणा स्रोत है। किन्तु बहुत कम लोग जानते हैं कि भगत सिंह बीसवीं शताब्दी के राजनीतिक कार्यकर्ताओं के बीच एक प्रमुख बुद्धिजीवी भी थे। आज उन्हें इसी रूप में याद करने की आवश्यकता है। लगभग दो साल वे जेल में रहे। इस बीच उन्होंने बहुत सी पुस्तकें पढ़ीं। इनमें यूरोप-अमरीका के विद्वान, चिंतक, बुद्धिजीवी साहित्यकारों की पुस्तकें हैं। उनका पूर्ण राजनीतिक जीवन 18 साल का रहा और कुल उम्र 25 साल। अजीब संयोग है कि रानी लक्ष्मीबाई भी 23 साल की उम्र में अँग्रेज़ों से लड़ते हुए शहीद हो गयीं। भगत सिंह के अन्य साथी यतीन्द्रनाथ ने 65 दिन तक आमरण अनशन किया-जेल सुधार तथा मानवाधिकारों के लिए। इसके बाद वह भी 23 वर्ष की आयु में शहीद हो गये। उनकी शहादत ने पूरे देश को झकझोर दिया। ब्रिटिश सरकार भी मजबूर हो गयी। क्रान्तिकारियों का यह प्रभाव भी पड़ा कि वहाँ पढ़ने लिखने की सामग्री दी जाने लगी। यह सुधार कुछ मामूली परिवर्तनों के साथ, लगभग उसी रूप में आज भी मौजूद है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि उनकी चार महत्वपूर्ण कृतियाँ- The ideal Of Socialism (समाजवाद का आदर्श), History of Revolutionary Movement in India (भारत में क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास), At the Door of Death (मौत के दरवाजे पर), जेल से बाहर तो आई थीं किन्तु वे कहाँ गयीं किसी को पता नहीं। उनकी जेल नोटबुक जरूर प्रकाश में आई, जो उनके भाई कुलबीर सिंह के पास थी। यह बात रूसी विद्वान एल.वी. मित्रोखिन के जरिए मालूम हुई। यह नोटबुक उन्हें 1977 में मिल गयी। 1981 में उन्होंने भगत सिंह पर एक विस्तृत शोध-निबंध लिखा था। बाद में जगमोहन सिंह तथा डॉ. चमनलाल ने भगत सिंह के दस्तावेजों को हिन्दी में प्रकाशित करवाया। फिर भगत सिंह की जेल नोटबुक को लम्बी भूमिका के साथ 'शहीदे आजम की जेल डायरी' नाम से सत्यम वर्मा ने संपादित किया तथा यह 1999 में परिकल्पना प्रकाशन, लखनऊ से प्रकाशित हुई। यह जेल नोटबुक भगत सिंह तथा क्रांतिकारी आंदोलन के बारे में हमारी ज्ञान-वृद्धि करती है। भगत सिंह लाहौर जेल में 1929 से 23 मार्च, 1931 तक, फाँसी पर चढ़ाए जाने से पूर्व नोटबुक लिखते रहे।
बीसवीं सदी के किसी भी लेखक या बुद्धिजीवी में इतनी वैचारिक प्रगति नहीं दिखती, जितनी भगत सिंह में। 1918 से उनका आंदोलनकारी सफर आरंभ हुआ। तब वे आर्य समाजी थे, फिर सुधारवादी फिर अराजकतावादी होते हुए अंत में वैज्ञानिक समाजवाद के साये में आये। आतंकवाद को वे गलत समझते थे। उनका विचार था कि बिना संगठन और पार्टी के कोई परिवर्तन संभव नहीं है, क्रांतिकारी के रूप में ये दोनों बहुत आवश्यक हैं। लेनिन उनके आदर्श थे। कहना प्रासंगिक होगा कि फाँसी का बुलावा आया तो भगत सिंह लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे, तब उन्होंने एक हाथ उठा कर कहा कि रुको, एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है। उन्होंने नौजवानों से अपील की कि ''व्यवस्थित ढंग से आगे बढ़ने के लिए आपको जिसकी सबसे अधिक आवश्यकता है, वह है एक पार्टी जिसके पास जिस टाइप के कार्यकर्ताओं का ऊपर जिक्र किया जा चुका है, वैसे कार्यकर्ता हों-ऐसे कार्यकर्ता जिनके दिमाग साफ हों और जिनमें समस्याओं की तीखी पकड़ हों और पहल करने और तुरन्त फैसला लेने की क्षमता हो। इससे पार्टी का अनुशासन बहुत कठोर होगा और यह जरूरी नहीं है कि वह भूमिगत पार्टी हो, बल्कि भूमिगत नहीं होनी चाहिए- पार्टी को अपने काम की शुरूआत अवाम के बीच प्रचार से करनी चाहिए। किसानों और मज़दूरों को संगठित करने और उनकी सक्रिय सहानुभूति प्राप्त करने के लिए यह बहुत जरूरी है। इस पार्टी को कम्युनिस्ट पार्टी का नाम दिया जा सकता है।'' (दो फरवरी 1931 को युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं के नाम अपील से) भगत सिंह ने इस देश की जनता को तीन नारे दिये- 1. इंकलाब-जिन्दाबाद, 2. किसान-मजदूर जिन्दाबाद (कम्युनिस्ट पार्टी का आज भी यही नारा है) 3. साम्राज्यवाद का नाश हो। ये तीनों नारे आज हमारी श्रमिक एवं संघर्षशील जनता के कंठहार हैं। भगत सिंह ने महत्वपूर्ण कार्य यह किया कि अपने समय के क्रांतिकारी आंदोलन को पुराने क्रांतिकारी आंदोलन की रूढ़वादी परम्परा से विमुक्त किया। पुराने क्रांतिकारी किसी न किसी देवी-देवता के उपासक थे और दृढ़ ईश्वर विश्वासी थे। वे इस सबको नियति का खेल मानते थे। भगत सिंह ने कहा कि इस प्रकार के क्रांतिकारी अंत में साधु-सन्यासी बन जाते हैं। उन्होंने धर्म को राजनीति से अलग रखने का सबसे अधिक प्रयास किया। राजनीति और धर्म के मेल में देशभक्ति की भावना मर जाती है, अपने इसी विचार को नौजवानों तक पहुँचाने के लिए भगत सिंह ने एक लेख लिखा-'मैं नास्तिक क्यों हूँ' जो आज भी बहुत चाव से पढ़ा जाता है। भगत सिंह ने यह भी कहा कि ''हमें धर्मनिरपेक्ष राजनीति की जरूरत है। हमें ऐसी राजनीति की जरूरत नहीं जो किसी भी धर्म को महत्व दे।'' भगत सिंह की यह बात बहुत सही ठहरती है क्यों कि पिछले 40 साल से धर्म की राजनीति हो रही है और दंगे कराये जा रहे हैं। आज तो इस में जाति का भी समावेश हो गया है। धर्म की राजनीति करने वाले लोग हर समस्या का हल अतीत में देखते हैं। उनके लिए हर समस्या का हल उनके धार्मिक ग्रंथों में निहित है। ऐसे दिवास्वप्न देखने वाले लोग देश का क्या भला करेंगे। भगत सिंह की रचनाओं के आधार पर उनका एक संक्षिप्त मूल्यांकन हमने किया है। यह वर्ष उनका जन्म शताब्दी वर्ष है। 'वर्तमान साहित्य' उन पर यत्किंचित सामग्री दे रहा है। भगत सिंह पर उनके साथी शिव वर्मा के संस्मरण तथा उनके द्वारा लिखी पुस्तक 'भगत सिंह की चुनी हुई रचनाएं' हिन्दी व अँग्रेज़ी दोनों में उपलब्ध हैं। इसे विशेष रूप से पढ़ने का आग्रह है। भगत सिंह ने भारत में क्रांति की संभावना पर जो विचार दिया है वह आज भी सार्थक है-''क्रान्ति परिश्रमी विचारकों और परिश्रमी कार्यकर्ताओं की पैदावार होती है। दुर्भाग्य से भारतीय क्रान्ति का बौद्धिक पक्ष हमेशा दुर्बल रहा है। इसलिए क्रान्ति की आवश्यक चीजों और किये गये काम के प्रभाव पर ध्यान नहीं दिया गया। इसलिए एक क्रान्तिकारी को अध्ययन मनन को अपनी पवित्र जिम्मेदारी बना लेना चाहिए।''
(डॉ. कुँवरपाल सिंह वरिष्ठ साहित्यकार हैं और इस वक्त 'वर्तमान साहित्य' का सम्पादन कर रहे हैं।)
yah llkhe bhahut badhiya hai par mujha bloge mai hindi mei likhana bhatia
ReplyDeleteकामरेड कुवंरपाल जी का लेख पसंद आया, कम से कम एक ब्लाग तो ऐसा मिला जहां शांति के साथ अध्यन किया जा सकता है, वर्ना सभी ब्लाग जो 'कम्युनिस्ट' शब्द टाईप करने पर खुलते हैं, उनका मकसद या तो वामपंथ का विरोध और या सिंगूर और नन्दीग्राम के विवाद को हवा देकर भड्काने का होता है, तो मुझे उम्मीद है कि जो समतामूलक समाज भ्गत सिंह बनाना चाहते थे पर गोरो के बाद आये काले लुटेरों ने वह होने नहीं दिया, तो शायद इस तरह के ब्लागस के जरिये वह संदेश जनता में जा कर भविष्य के प्रयासोँ के लिये वैचारिक नींव को और सुघढ एवं मजबूत करेगा।
ReplyDeleteआपका
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